भारत और चीन के बीच गलवन घाटी में 15 जून की रात को दोनों देश की सेनाओं के बीच झड़प हुई थी और उसके बाद बातचीत के बाद अब धीरे-धीरे यह मामला थम गया है। दोनों देशों के बीच सेना के कमांडर स्तर पर बातचीत हुई साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और चीन के विदेश मंत्री की भी बात हुई।
उसके बाद चीन की सेना थोड़ा पीछे हट गई और इससे स्थिति में कुछ सुधार हो गया है । लेकिन आने वाले समय में स्थिति क्या बनेगी इसके बारे में कुछ भी कहा नहीं कहा जा सकता है! वही तिब्बत के निर्वासित पूर्व सांसद जो कि तिब्बत की संसद के पूर्व उपसभापति रह चुके हैं आचार्य ऐशी फुंटसोक का कहना है कि चीन पर विश्वास नहीं करना चाहिए। चीन विश्वास के पात्र नहीं है।
चीन को लेकर तिब्बत की समस्या के बारे में बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि चीन विश्वासघाती है और उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए। उन्होंने कहा कि भारत ने चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग को दोनों देशों के संबंध सुधारने के लिए अपने हम बुलाया था लेकिन उनके आने के बाद लद्दाख के गलवन घाटी में जो भी कुछ हुआ वह उनके विश्वासघाती होने का ही उदाहरण है।
चीन के विस्तार वादी नीतियों के चलते ही उसके लगभग सभी पड़ोसी देशों से चीन की सीमा पर विवाद बना हुआ है। चीन ने तिब्बत को भी 61 वर्षों से हथियाये हुए हैं और तिब्बत पर अवैध कब्जा जिस तरीके से किए हैं उसी तरह वह भारत के इलाकों पर भी कब्जा करना चाहता है और इसी मकसद से चीन ने लद्दाख के घटना को अंजाम दिया था, भारत को कभी भी चीन पर विश्वास नहीं करना चाहिए।
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चीन हमेशा हर नियम और समझौते का उल्लंघन वाला देश है। ऐशी का कहना है कि तिब्बत पर चीन का कोई अधिकार नहीं है। वह अवैध कब्जा किए हुए हैं। तिब्बत मूल रूप से अपने मूल निवासियों का है और जब तक तिब्बत और चीन की समस्या का समाधान नहीं होता है, भारत की समस्या का भी समाधान शायद नहीं होगा और यह सीमा विवाद आगे भी बना रह सकता है।
चीन हमेशा से दूसरों की जमीनों को हड़प कर वहां पर अपनी नीतियों को थोपता रहा है और यह आगे आने वाले समय में भी जारी रह सकता है।
शायद यही वजह है कि भारत के पहले गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल ने भी चीन को भारत का सबसे बड़ा दुश्मन कहा था।
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मालूम है कि तिब्बत के सबसे बड़े धर्मगुरु दलाई लामा ने 6 जुलाई को अपना 85 वाँ जन्मदिन मनाया है। इस दौरान कई देशों के राष्ट्र प्रमुखों ने उन्हें बधाई दी और वीडियो कांफ्रेंस के जरिए वह दुनिया के कई जाने-माने लोगों और नेताओं से बातचीत की।
मालूम हो कि 61 साल पहले दलाई लामा को 17 मार्च 1959 को तिब्बत की राजधानी छोड़कर पैदल ही भागना पड़ा था और लगभग 15 दिन तक लगातार ऊंची पहाड़ियों से इधर-उधर गुजरने के बाद जैसे-तैसे वह 30 मार्च को भारत पहुंचे थे और तब से ही वे भारत में निर्वासित जीवन जी रहे हैं। भारत ने उन्हें उस वक्त शरण दी थी। दलाई लामा को 1989 में शांति के नोबेल पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है।